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२० मार्च, ११५७
''विजयका आनंद कभी-कभी संघर्ष और कष्टके आकर्षणसे कम होता है; फिर भी विजयशील मानव आत्माका उद्देश्य मुकुट होना चाहिये न कि सूली।
अभीप्सा न करनेवाली अंतरात्माएँ परमात्माकी असफलताएं हैं; परंतु प्रकृति उनसे प्रसन्न होती है और उनकी संख्या बढ़ाना चाहती है क्योंकि वे उसके स्थायित्वका आश्वासन देते और उस- के साम्राज्यको लंबाते हैं ।
जो दरिद्र हैं, अज्ञानी, अकुलीन या अशिष्ट हैं वे प्राकृत जन नहीं हैं, प्राकृत जन वे सब हैं जो तुच्छता और सामान्य मानवतासे संतुष्ट हैं ।
मनुष्योंकी सहायता कर पर उन्हें अपनी शक्तिसे वंचित करके मुहताज न बना; उनका पथ-प्रदर्शन कर और उन्हें सीख दे पर ध्यान रख कि उनकी उपक्रमशक्ति और मौलिकता अक्षत रहें; दूसरोंको अपने अंदर ले ले, पर बदलेमें उन्हें उनकी प्रकृतिका पूर्ण देवत्व प्रदान कर । जो यह कर सकता है वही नेता और गुरु है ।
६२ परमेश्वरने संसारको युद्धका एक क्षेत्र बनाया है और इसे योद्धाओं- की ठोकरों तथा भारी मल्लयुद्ध और संघर्षकी चिल्लाहटोंसे भर दिया है । क्या तू उनकी शांतिको चुरा लेना चाहता है, वह मूल्य चुकाये बिना ही जो उन्होंने इसके लिये निश्चित किया है !
पूर्ण प्रतीत होनेवाली सफलतापर विश्वास मत कर, परंतु सफल हो चुकनेके बाद जब तू देखे कि अभी बहुत कुछ करना बाकी ह तो प्रसत्र हो और आगे बढ़ता चल क्योंकि सच्ची पूर्णतासे पहले लंबा परिश्रम होता है ।
इससे बढ़कर सुन्न कर देनेवाली और कोई भूल नहीं हो सकती कि गलतीसे किसी पड़ावको ही लक्ष्य समझ लिया जाय या किसी विश्राम-स्थलपर बहुत अधिक ठहरा जाय ।''
(विचार और झांकियां)
श्रीअरविदने यहां यह सब जो कहा है उसका उद्देश्य है मानव प्रकृतिके तमस्के, उसकी जड़ता, आलस्य, सहज-सन्तुष्टि और परिश्रम न करनेकी प्रवृत्तिके विरुद्ध लड़ना । जीवनमें कितनी ही बार हमें ऐसे लोग मिलते है जो शांतिप्रिय इसलिये होते है कि ३ लडाईसे डरते है, जो संग्रामजीतने- से पहले ही आरामके लिये लालायित होते हैं, जो अपनी जरा-सी प्रगतिसे संतुष्ट हो जाते हैं और अपनी कल्पना तथा कामनाओंमें उसे ऐसी अद्भुत प्राप्ति समझ लेते है जो उनके आधे रास्तेमें रुक जानेको न्याय-संगत ठहराती है ।
सामान्य जीवनमें, निःसंदेह, ऐसा बहुत होता है । वस्तुत: यह मध्य- वर्गीय आदर्श है और इसने मानवजातिको एक तरहसे मुरदा बना दिया है और मनुष्यको वैसा बना डाला है जैसा वह आज है । ''जबतक युवा हो काम करो, धन, सम्मान, पदका अर्जन करो, थोडी दूर-दृष्टि रखो, कुछ बचाओ और एक पूंजी जमा कर लो, पदाधिकारी बनो, ताकि जब तुम चालीसके होओ तो आराम कर सको, अपनी आमदनीका और बादमें पेन्शनका उपभोग कर सको ।'' - बैठ जाना, रास्तेमें रुक जाना, आगे न बढ़ना, सो जाना, समयसे पहले कब्रकी ओर चल देना, जीवनका उद्देश्य और प्रयोजन ही जीना बन्द कर देना - बैठ जाना!
जिस क्षण मनुष्य आगे बढ़ना बन्द कर देता है, वह पीछे जाता है ।
जिस क्षण वह संतुष्ट होकर बैठ जाता है तथा और आगे अभीप्सा नहीं करता वह मरना शुरू कर देता है । जीवन है गति, जीवन है प्रयास, जीवन है आगेकी ओर बढ़ना, एक पहाड़ी चढ़ाई चढ़ना, नये-नये ज्योति-शिखरोंको पार करना और भविष्यकी चरितार्थताकी ओर अग्रसर होना । विश्राम करनेकी इच्छासे बढ़कर खतरनाक कोई वस्तु नही है । हमें विश्रामकी खोज करनी चाहिये कर्ममें, प्रयासमें, आगेकी ओर बढ़नेमें -- उस सच्चे विश्रामकी जो भागवत कृपामें पूर्ण भरोसा रखनेसे, इच्छाओं- के अभावसे, अहंपर विजय प्राप्त करनेसे मिलता है ।
सच्चा विश्राम चेतनाको विस्तृत करनेसे, विश्वभावापत्र बनानेसे मिलता है । संसार जितने विशाल बन जाओ और तुम सदा आराममें रहोगे । कर्मकी भरपूरतामें, रणस्थलीके बीचोंबीच, विविध प्रयासोंके पूर्ण प्रवेगमें तुम अनंतता और शाश्वतताकी विश्रांतिका अनुभव करोगे ।
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